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सं वां॒ मना॑सि॒ सं व्र॒ता समु॑ चि॒त्तान्याक॑रम्। अग्ने॑ पुरीष्याधि॒पा भ॑व॒ त्वं न॒ इष॒मूर्जं॒ यज॑मानाय धेहि ॥५८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्। वा॒म्। मना॑सि। सम्। व्र॒ता। सम्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। चि॒त्तानि॑। आ। अ॒क॒र॒म्। अग्ने॑। पु॒री॒ष्य॒। अ॒धि॒पा इत्य॑धि॒ऽपाः। भ॒व॒। त्वम्। नः॒। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। यज॑मानाय। धे॒हि॒ ॥५८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:58


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अध्यापक और उपदेशक लोगों को चाहिये कि जितना सामर्थ्य हो उतना ही वेदों को पढ़ावें और उपदेश करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रीपुरुषो ! जैसे मैं आचार्य (वाम्) तुम दोनों के (संमनांसि) एक धर्म्म में तथा संकल्प-विकल्प आदि अन्तःकरण की वृत्तियों को (संव्रता) सत्यभाषणादि (उ) औैर (सम्, चित्तानि) सम्यक् जाने हुए कर्मों में (आ) अच्छे प्रकार (अकरम्) करूँ, वैसे तुम दोनों मेरी प्रीति के अनुकूल विचारो। हे (पुरीष्य) रक्षा के योग्य व्यवहारों में हुए (अग्ने) उपदेशक आचार्य वा राजन् ! (त्वम्) आप (नः) हमारे (अधिपाः) अधिक रक्षा करनेहारे (भव) हूजिये (यजमानाय) धर्मानुकूल सत्सङ्ग के स्वभाववाले पुरुष वा ऐसी स्त्री के लिये (इषम्) अन्न आदि उत्तम पदार्थ और (ऊर्जम्) शरीर तथा आत्मा के बल को (धेहि) धारण कीजिये ॥५८ ॥
भावार्थभाषाः - उपदेशक मनुष्यों को चाहिये कि जितना सामर्थ्य हो उतना सब मनुष्यों का एक धर्म्म, एक कर्म्म, एक प्रकार की चितवृत्ति और बराबर सुख दुःख, जैसे हो, वैसे ही शिक्षा करें। सब स्त्री-पुरुषों को योग्य है कि आप्त विद्वान् ही को उपदेशक और अध्यापक मान के सेवन करें और उपदेशक वा अध्यापक इनके ऐश्वर्य्य और पराक्रम को बढ़ावें। सब मनुष्यों के एक धर्म आदि के विना आत्माओं में मित्रता नहीं होती और मित्रता के विना निरन्तर सुख भी नहीं हो सकता ॥५८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अध्यापकोपदेशका यावत्सामर्थ्यं तावद् वेदाध्यापनोपदेशौ कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

(सम्) एकस्मिन् धर्मे (वाम्) युवयोः (मनांसि) संकल्पविकल्पाद्या अन्तःकरणवृत्तयः (सम्) (व्रता) सत्यभाषणादीनि (सम्) (उ) समुच्चये (चित्तानि) संज्ञप्तानि धर्म्याणि कर्माणि (आ) समन्तात् (अकरम्) कुर्याम् (अग्ने) उपदेशकाचार्य (पुरीष्य) पुरीषेषु पालकेषु व्यवहारेषु भवस्तत्सम्बुद्धौ (अधिपाः) अधिकः पालकः (भव) (त्वम्) (नः) अस्माकम् (इषम्) अन्नादिकम् (ऊर्जम्) शरीरात्मबलम् (यजमानाय) धर्मेण सङ्गन्तुं शीलाय (धेहि)। [अयं मन्त्रः शत०७.१.१.३८ व्याख्यातः] ॥५८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रीपुरुषौ ! यथाऽहमाचार्यो वां संमनांसि संव्रता सञ्चित्तान्याकरम्, तथा युवां मम प्रियमाचरेतम्। हे पुरीष्याग्ने ! त्वं नोऽधिपा भव, यजमानायेषमूर्जं च धेहि ॥५८ ॥
भावार्थभाषाः - उपदेशका यावच्छक्यन्तावत् सर्वेषामैकधर्म्यमैककर्म्यमेकनिष्ठां तुल्यसुखदुःखे यथा स्यात् तथा शिक्षयेयुः। सर्वे स्त्रीपुरुषा आप्तविद्वांसमेवोपदेष्टारमध्यापकं सेवेरन्, स चैतेषामैश्वर्यपराक्रमवृद्धिं कुर्यात्। नैकधर्मादिभिर्विनाऽत्मसु सौहार्दं जायते, नैतेन विना सततं सुखं च ॥५८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - उपदेशकांनी सर्व माणसांना त्यांच्या सामर्थ्यानुसार समान संकल्प, समान कर्म, सम्यक समान चित्तवृत्ती व सुख-दुःख समान मानण्याचे शिक्षण द्यावे. सर्व स्त्री-पुरुषांनी आप्त विद्वानांनाच उपदेशक व अध्यापक मानावे, तसेच उपदेशक व अध्यापक यांनी त्यांचा पराक्रम व ऐश्वर्य वृद्धिंगत होईल अशी प्रेरणा त्यांना द्यावी. सर्व माणसांचा धर्म एक असल्याखेरीज अंतःकरणापासून मैत्री होत नाही व मैत्रीखेरीज सदैव सुख प्राप्त होत नाही.